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तुम्हारि निन्द्रा तोड्ना चाहता हुँ : ओशो
मैं उपदेशक नहीं हूं । कोई उपदेश, कोई शिक्षा मैं नहीं देना चाहता हूं । अपना कोई विचार तुम्हारे मन में डालने की मेरी कोई आकांक्षा नहीं है । सब विचार व्यर्थ हैं और धूलकणों की भांति वे तुम्हें आच्छादित कर लेते हैं । और फिर तुम जो नहीं हो वैसे दिखाई पड़ने लगते हो । और जो तुम नहीं जानते हो वह ज्ञात-सा मालूम होने लगता है । वह बहुत आत्मघातक है । विचारों से अज्ञान मिटता नहीं, केवल छिप जाता है ।
ज्ञान को जगाने के लिए अज्ञान को उसकी पूरी नग्नता में जानना जरूरी है । इसलिए विचारों के वस्त्रों में अपने को मत ढांको । समस्त वस्त्रों और आवरणों को अलग कर दो ताकि तुम अपनी नग्नता और रिक्तता से परिचित हो सको । वह परिचय ही तुम्हें अज्ञान के पार ले जाने वाला सेतु बनेगा । अज्ञान के बोध का तीव्र संताप ही क्रांति का बिंदु है । इससे मैं तुम्हें ढांकना नहीं, उघाड़ना चाहता हूं ।
ज़रा देखो: तुमने कितनी अंधी श्रद्धाओं और धारणाओं और कल्पनाओं में अपने को छिपा लिया है ! और इन मिथ्या सुरक्षाओं में तुम अपने को सुरक्षित समझ रहे हो । यह सुरक्षा नहीं, आत्मवंचना है । मैं तुम्हारी इस निद्रा को तोड़ना चाहता हूं । स्वप्न नहीं, केवल सत्य ही एकमात्र सुरक्षा है और तुम यदि स्वप्नों को छोड़ने का साहस करो तो सत्य को पाने के अधिकारी हो जाते हो। कितना सस्ता सौदा है !
सत्य को पाने के लिए और कुछ नहीं केवल स्वप्न ही छोड़ने पड़ते हैं । विचारों की, स्वप्नों की, कल्पना-चित्रों की मूच्र्छा को तोड़ना है । उससे, जो कि दिख रहा है, उस पर जागना है, जो कि देख रहा है । ‘वह द्रष्टा ही सत्य है, उसे पा लो, तो समझो कि जीवन पा लिया है ।’ यह किसी से कह रहा था । वे सुनकर विचारमग्न हो गये । मैंने उनसे कहा: ‘आप तो सोच में पड़ गये। उसी से तो मैं जागने को कह रहा हूं । वही तो निद्रा है ।’
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